आज कृष्णपक्ष षष्ठी को भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्मोत्सव मनाया जा रहा है. बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है. भगवान विष्णु के अधिकांश अवतारों में शेषनाग किसी न किसी रूप में उनके साथ हमेशा अवतरित हुए हैं. हिंदू धर्म शास्त्रानुसार भगवान बलराम का प्रधान शस्त्र हल और मूसल है. हल धारण करने के कारण भी बलराम को हलधर कहा जाता है. भगवान बलराम माता देवकी और वासुदेव के 7वें संतान हैं. यह पर्व श्रावण पूर्णिमा के 6 दिन बाद चंद्रषष्ठी, बलदेव छठ, रंधन षष्ठी के नाम से मनाया जाता है.
रूपेन्द्र पैकरा की कलम से –
हलषष्ठी को हरछठ, कमरछठ, खमरछठ भी कहा जाता है। यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। संतान प्राप्ति व उनकी दीर्घायु एवं सुखमय जीवन की कामना रखकर माताएँ इस व्रत को रखती हैं। इस दिन माताएँ सुबह से ही महुआ पेड़ की डाली का दातुन कर, स्नान कर इस पर्व को भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष के षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। आज के दिन व्रती माताएँ, भैंस की दूध का चाय पीती हैं, तथा दोपहर के बाद घर के आँगन में, मंदिर देवालय या गाँव के चौपाल आदि में तालाब (सगरी) बनाकर उसमें जल भरती हैं। सगरी का जल जीवन का प्रतीक है। तालाब पार ( मेढ़) में बेर, पलाश, गूलर, आदि पेड़ की टहनियाें तथा काशी के फूल को लगाकर सजाते हैं। सामने ईटों की चौपाटे रखकर ,कलश रखकर, हलषष्ठी देवी की मूर्ति भैंस के घी में सिंदूर से बनाकर उसकी पूजा करते हैं। साड़ी आदि सुहाग की सामग्री भी चढ़ाते हैं, तथा हलषष्ठी माता के छः कहानियों को कथा के रूप में श्रवण करती हैं। इस पूजा की सामाग्री में विशेष रूप से पसहर चांवल जो कि बिना हल जुते हुए जमीन में ऊगा वाला है। महुआ के फूल, पत्ते, धान की लाई, भैंस के दूध, दही, व घी आदि रखते हैं।
बच्चों के खिलौने जैसे-भौंरा-बांटी, दीया-चुकिया, आदि भी रखा जाता है। बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में गेड़ी को भी सगरी में रखकर पूजा करते हैं। क्योंकि इसका स्वरूप पूर्णतः हल से मिलता जुलता है, तथा बच्चों के ही उपयोग का है।
इस व्रत में हल से जुती हुई कोई भी अन्न आदि व गौमाता के दूध, दही, घी आदि का उपयोग वर्जित है, इस दिन उपवास रखने वाली माताएँ हल चले जगहों पर भी नहीं जाती हैं। इस व्रत में पूजा के बाद माताएँ अपनी संतान के पीठ वाले भाग में कमर के साथ पोता अर्थात नए कपड़े का टुकड़ा जो हल्दी से भिगोया हुआ होता है, बाँधकर अपने आँचल से पोछती हैं। जो कि अपनी माता के व्दारा दिया गया रक्षा कवच का प्रतीक है।
पूजन के बाद व्रत करने वाली माताएँ जब प्रसाद भोजन के लिए बैठती हैं, तो उनके भोज्य पदार्थ में पसहर चावल का भात छै: प्रकार के भाजी की सब्जी मुनगा, कुम्हड़ा, चरोटा, करेला, खट्टा भाजी, चेंज भाजी आदि। भैंस के दूध, दही, व घी, सेंधा नमक, महुआ के पेड़ के पत्ते का दोना, बचा हुआ लकड़ी(डंठल) को चम्मच के रूप में उपयोग किया जाता है।
बच्चों को प्रसाद के रूप में धान की लाई, भूना हुआ महुआ तथा चना, गेहूं, अरहर आदि छ:प्रकार के अन्नों को मिलाकर बाँटा जाता है। इस व्रत पूजन में छ: की संख्या का बड़ा महत्व है। जैसे- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठवां दिन, छ: प्रकार की भाजी, छ: प्रकार के खिलौने, छ:प्रकार के अन्न वाला प्रसाद तथा छ: कहानी की कथा का श्रवण किया जाता है।