0 आजादी के बाद से खैरागढ़ की राजनीति में सामान्य वर्ग के नेताओं का रहा दखल, अब पिछड़ा वर्ग का बढ़ रहा प्रभाव
सीजी क्रांति/खैरागढ़। आजादी के बाद से ही खैरागढ की राजनीति, राजपरिवार व उनसे ताल्लुक रखने वाले सामान्य वर्ग के ही इर्द-गिर्द रहा। बदलते हालात और समीकरण के चलते अब राजनीति की बागडोर पिछड़ा वर्ग के नेताओं के हाथों में जा रहा है। जिनका नेतृत्व लोधी समाज कर रहा है। उनके बाद तेली समाज भी अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराने सियासी कसरत कर रहा है। 15 साल पहले भाजपा ने कोमल जंघेल को टिकट देकर पहला जाति कार्ड खेला था। उसके बाद जनसंख्या में दूसरा स्थान रखने वाले साहू समाज से घम्मन साहू को जिला भाजपाध्यक्ष बनाकर दूसरी बार जातिवाद का चक्रव्यूह रचना की है।
बता दें कि खैरागढ़ भाजपा के दीनदयाल उपाध्याय का उपमा हासिल करने वाले कोमल कोठारी सामान्य वर्ग से थे। उनके बाद भाजपा में लाल श्रीराज सिंह का प्रभाव रहा। इसी बीच कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे सिद्धार्थ सिंह ने भाजपा प्रवेश किया। पार्टी में उनका दखल और प्रभाव बढ़ा। अब उनके पुत्र विक्रांत सिंह का दबदबा है। ये सभी सामान्य वर्ग से है। उसी तरह कांग्रेस में शुरू से ही नागवंशी राजपरिवार का एकतरफा वर्चस्व रहा। इस बीच विजय लाल ओसवाल और माणिक लााल गुप्ता भी विधायक बने लेकिन वे भी सामान्य वर्ग के रहे।
आजादी के बाद से ही खैरागढ़ की राजनीति में प्रभावी रहे वंशवाद और परिवारवाद को अब जातिवाद के सामने घुटने टेकने पड़ रहे हैं। भाजपा में घम्मन साहू का जिला भाजपाध्यक्ष बनना हो या कांग्रेस से यशोदा वर्मा का लोधी जाति से होने के कारण विधायक बनना। वहीं भाजपा में 2007 के बाद 15 साल से कोमल जंघेल और कांग्रेस में 2008 से लगातार लोधी समाज के नेताओं को टिकट दिया जा रहा हैं। भाजपा लोधी समाज से कोमल का विकल्प अब तक खड़ा नहीं कर पाया है। जबकि कांग्रेस में लाईन लगी है।
इधर ओबीसी राजनीति की बात करें तो खैरागढ़ नगर पालिका हो या छुईखदान व गंडई नगर पंचायत सभी जगहों पर पिछड़ा वर्ग के नेता काबिज है। इसकी वजह कुछ हद तक जरूर आरक्षण हो लेकिन सामान्य वर्ग के नेताओं को चुनौती देते हुए ओबीसी नेताओं के कद बढ़ तो रहे हैं। यही स्थिति ग्राम पंचायतों में भी देखने को मिल रही है।
कोमल जंघेल ने तोड़ा राजपरिवार का वर्चस्व, यही से गहरी हुई जातिवाद की जड़ें
2007 में देवव्रत सिंह के सांसद चुनाव जीतने के बाद उनकी विधानसभा सीट खाली हुई। कांग्रेस से उनकी पत्नी रही पदमा सिंह को टिकट दी गई। उनके विरूद्ध भाजपा के कोमल जंघेल ने करीब 47 साल बाद राजपरिवार के वर्चस्व को तोड़ा। और यही से खैरागढ़ की राजनीति में पिछड़ा वर्ग या कहे लोधी राजनीति की जड़े मजबूत होती गई। जो अब पूरी तरह से जातिवाद के चक्रव्यूह में फंस चुकी है। हालांकि इस चक्रव्यूह को देवव्रत सिंह ने तोड़ा। उनकी मौत के बाद जातिवाद के चक्रव्यूह को तोड़ने का साहस और हुनर फिलहाल किसी में नजर नहीं आ रहा है।
खैरागढ़ की राजनीति में लोधी क्रांति के जनक कमलेश्वर लोधी!
2003 के पहले विधानसभा चुनाव में क्षेत्र की राजनीति में जातिवाद का पहला बड़ा प्रयोग कमलेश्वर लोधी ने शुरू किया। जितनी कुशलता से कमलेश्वर लोधी ने राजनीति बिसात बिछाई और समाज को राजनीतिक रूप से एकजुट और जागरूक किया, ऐसा उससे पहले कभी नहीं हुआ। उन्होंने तब के कद्दावर नेता देवव्रत सिंह और सिद्धार्थ सिंह के प्रतिद्धंद्धी होने के बाद भी सम्मानजनक वोट हासिल कर लोधी समाज को उसकी शक्ति का अहसास करा दिया। तभी से राजनीतिक दलों के कान खड़े हुए। और 2007 में भाजपा ने लोधी प्रत्याशी देकर जातिवाद का पहला दांव खेला। जो सफल भी रहा। उसके बाद लोधीवाद राजनीति का सफल हथियार बन चुका है।