सीजी क्रांति/खैरागढ़। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद सक्रिय राजनीति से दूर चल रहे देवव्रत सिंह ने साल 2018 के विधानसभा चुनाव में धमाकेदार एंट्री की थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ जोगी कांग्रेस के बैनर तले चुनाव लड़ते हुए 30.44 प्रतिशत वोटों के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज की। देवव्रत ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी भाजपा के कोमल जंघेल को 870 वोट से हराया था। जबकि सत्ता परिवर्तन की लहर के बीच कांग्रेस को 15.77 प्रतिशत वोट के साथ तीसरे नंबर पर संतुष्ट रहना पड़ा था।
इधर उसी परिवर्तन की लहर के बीच भाजपा के कोमल जंघेल ने अपना लोहा मनवाया और भीतरघात व अन्य राजनीति समीकरणों के बाद भी जनाधार के दम पर 30.06 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रहे थे। दो लाख 1 सौ वोटर की संख्या वाली विधानसभा सीट पर साल 2018 की चुनाव में कुल 15 प्रत्याशी अपनी कीस्मत आजमा रहे थे। 277 बूथों पर हुए इस चुनाव में 1 लाख 70 हजार 621 ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।
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10 साल बाद जीत के साथ की थी वापसी
साल 2007 में लोकसभा उपचुनाव जीतने के बाद देवव्रत सिंह राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में प्रवेश कर लिए थे। वही साल 2009 की सांसद चुनाव में दोबारा भाग्य आजमाया था। लेकिन उन्हें भाजपा के मधुसूदन यादव के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद देवव्रत सिंह कांग्रेस की राजनीति से दूर होते चले गए। फिर वे तकरीबन 10 सालों तक चुनाव नहीं लड़े। वही सक्रिय राजनीति से भी दूरी बनाएं रखे। लेकिन साल 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले देवव्रत सिंह को छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के मुखिया अजीत जोगी का साथ मिला और खुद के दम पर चुनाव लड़े और पहली बार दिगर कांग्रेस-भाजपा प्रत्याशी ने जीत दर्ज की।
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देवव्रत की जीत से ज्यादा कोमल की हार पर हुई थी चर्चा
भाजपा प्रत्याशी कोमल जंघेल ने हार के बावजूद भी खुद को जनाधार वाला नेता साबित किया था। उन्होंने भाजपा सरकार विरोधी लहर के बाद भी चुनाव में अच्छा प्रदर्शन दिखाया था। हालांकि कोमल की हार पर राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह की बातें उठती रही। जिसमें से एक भीतरघात भी था। लेकिन राजनीतिज्ञों की मानें तो कोमल जंघेल ने वनांचल को बिल्कुल छोड़ दिया था। खासकर भावे एरिया के वोटरों को अपने पाले में लाने में नकाम रहे थे। यहीं उनकी हार का सबसे बड़ा कारण बन गया था।
30 हजार में सिमटी थी कांग्रेस
कांग्रेस ने साल 2018 के विधानसभा चुनाव में सीटिंग एमएलए गिरवर जंघेल को रिपीट किया था। सत्तासीन भाजपा के खिलाफ परिवर्तन की लहर चल रही थी। माना जा रहा था कि कांग्रेस खैरागढ़ की विधानसभा सीट आसानी से निकाल लेगी। लेकिन भाजपा के कोमल जंघेल का जनाधार और जोगी कांग्रेस के देवव्रत ङ्क्षसह की सियासी दांव में कांग्रेस को पूरी तरह मुंकी खानी पड़ी। आलम यह था कि सत्ता परिवर्तन की लहर के बीच कांग्रेस महज 31811 वोटों पर ही सीमट गई।
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12 प्रत्याशियों की हुई थी जमानत जप्त
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा, जोगी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सहित 15 प्रत्याशी चुनावी मैदान में किस्मत आजमा रहे थे। जिसमें से 6 लोग हजार का आंकड़ा नहीं छू पाए, तो 5 प्रत्याशी को 15 सौ के आसपास ही वोट मिला था। जबकि निर्दलीय सरजू जंघेल ही ऐसे थे, जिन्होंने 4 हजार से अधिक वोट हासिल किए। इस तरह 12 प्रत्याशियों की जमानत जप्त हो गई।
पांचवे नंबर रहा था नोटा
साल 2018 के विधानसभा चुनाव के परिणाम में नोटा का भी बड़ा रोल रहा था। नोटा को हार के अंतर से तीगुना वोट मिला था। चुनाव में हार-जीत का अंतर महज 870 वोट ही था। लेकिन नोटा को उसके तीगुने यानि 3068 वोट पड़ा था। वही वोटों के लिहाज से नोटा पांचवे नंबर पर काबिज रहा था। यहीं वजह रही है कि पिछले चुनाव में नोटा का हार-जीत के फैसले में अहम भूमिका रहा।