सीजी क्रांति न्यूज/खैरागढ़। खैरागढ़ विधानसभा सीट से अब तक अजेय रहे भाजपा नेता विक्रांत सिंह पराजित हो गए। उनके खिलाफ कांग्रेस से यशोदा वर्मा थी। जो हर लिहाज से विक्रांत के राजनीतिक कद के सामने छोटी ही थी। प्रदेश में भाजपा की लहर के बाद भी विक्रांत सिंह की हार चिंतन का विषय है। प्रदेश में अपने उम्र के नेताओं में विक्रांत सिंह ही एकमात्र ऐसे नेता थे, जो 19 साल से लगातार निर्वाचित पदों पर थे।
संगठन में भी विभिन्न दायित्यों को उन्होंने संभाला। चुनाव लड़ने और लड़ाने का तजुर्बा भी उनके पास था। पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभाव समेत हर परिस्थितियां उनके अनुकूल थीं। फिर भी वे 5 हजार 634 वोटों से हार गए। आश्चर्य की बात यह है कि वे अपने ही जिला पंचायत क्षेत्र से हार गए। खैरागढ़ नगर पालिका में भी उन्हें उम्मीद के अनुरूप वोट नहीं मिले।
इन सबके बीच यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि वे पिछले 20 साल से विधायक बनने के लिए तैयारी कर रहे थे। 15 साल से विधायक टिकट के लिए दावेदारी कर रहे थे। सही समय आने पर पार्टी ने उन्हें चुनाव से ढाई माह पहले विधायक की टिकट भी दी। इसके पहले भी उन्हें भाजपा में पद के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। यही नहीं खैरागढ़ में पदों के आवंटन में विक्रांत सिंह का दबदबा रहा। यानी पार्टी संगठन में अधिकांश पदों पर उनके चेहेतों को अवसर दिया गया।
यानी सत्ता और संगठन दोनों में ही विक्रांत सिंह की ही तूती बोलती रही। आखिरकार सब कुछ होने के बाद भी विक्रांत सिंह क्यों हार गए। सीजी क्रांति ने उन कारणों को ढूंढने की कोशिश की। आम जनता के साथ-साथ राजनीतिक जानकारों से चर्चा के उपरांत जो बातें सामने आई, उसे समीक्षा के रूप में हम सामने ला रहे हैं। हार की सभी तथ्य सही हो हम यह दावा नहीं करते। तो आईए जानते हैं उन वजहों को……
पार्टी कार्यकर्ता इस गुमान में रह गए कि विक्रांत सिंह की जीत तय है। हालांकि यह वातावरण शुरूआती दौर में था। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही परिस्थितियां बदलने लगी थी।
- 15 साल भाजपा के सत्ता में अधिकांश मूल भाजपाई हाशिए पर जाते गए। वहीं इस बीच सत्ता के लाभ से वंचित और पार्टी में उपेक्षित वर्ग की संख्या बढ़ गई। वे लामबंद हो गए। लिहजा वे घर बैठ गए। इस वर्ग को मनाने या समझाने की कोशिश तो दूर संवाद तक कायम नहीं किया गया।
- विक्रांत के समर्थकों में एक वर्ग ऐसा भी रहा जो मैदान में उतर कर पसीना बहाने के बजाय परिक्रमा करने और सोशल मीडिया में ही सक्रिय रहे।
- क्षेत्र में लोधीवाद को हल्के में लिया गया। भाजपा-कांग्रेस दोनों में जातिवाद के विरोध में माहौल बनाया गया। इससे नाराज लोधी समाज ने क्षेत्र में अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए लामबंद हो गए।
- किसानों के कर्ज माफ का भी असर हुआ लेकिन ऐसा होता तो इसका प्रभाव बाकी सीटों पर भी देखने को मिलता।
- मेरा बूथ, सबसे मजबूत, चुनाव जीतने भाजपा के इस ध्येय वाक्य को अमल में नहीं लाया गया।
- लोगों के मन में यह बैठ गया था कि विक्रांत सिंह को लंबे अरसे बाद टिकट मिला है। वे पैसे से भी संपन्न है। पर पैसों का बहाव जनता तक नहीं पहुंच पाया।
- पार्टी के कई नेताओं को जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई। जिसकी वजह से वे अपने ही क्षेत्र में सीमित हो गए।
- विरोधी पक्ष सह संदेश देने में कामयाब हो गए कि विक्रांत सिंह की जीत के बाद एक वर्ग विशेष की दबंगई बढ़ जाएगी।
- लोधी समाज के ही कई नेताओं को संदेह की नजर से देखा जाने लगा, जिसकी वजह से वे अपनी पूरी उर्जा नहीं लगा पाए।
- ढाई माह पहले टिकट फाइनल होने के बाद भी पार्टी से दूर हो चुके व नाराज नेताओं और कार्यकर्ताओं से सामंजस्य बैठाने व समझाने की सफल कोशिश नहीं की गई।
- पूर्व विधायक कोमल जंघेल नुकसान न पहुंचाएं, इस रणनीति के तहत उन्हें बाहर भेज दिया गया। जबकि कोमल जंघेल को खैरागढ़ में सक्रिय किए जाने की जरूरत थी।
- सामाजिक संगठनों की बैठक कर उनसे समर्थन हासिल करने तय कार्यक्रम सफल नहीं हुआ।
- विक्रांत सिंह की सरल और मृदुभाषी राजनीति शैली को एक्सपोज करने के बजाय उसे दमदार प्रत्याशी के रूप में पेश किया गया, लेकिन कांग्रेस ने उसे दबंग प्रत्याशी निरूपित कर नकारात्मक संदेश दे दिया।
- बीते 20 सालों में विक्रांत सिंह के इर्द-गिर्द पुराने चेहरे देखकर भी एक वर्ग दूरी बनाते गया।
- विक्रांत सिंह के आभामंडल को ऐसे बना दिया गया कि उनकी कमजोरियों या कमियों को उनके मुंह के सामने बोलने की हिम्मत उनके ही करीबियों तक में नहीं रही। लिहाजा सही फिडबैक नहीं मिल सका। और इसकी वजह से रणनीति में बदलाव कर नकारात्मक वातावरण को भांपने में रणनीतिकार चूक गए।
- भाजपा और उनके अनुषांगिक संगठन अपनी अलग टोली बनाकर प्रचार अभियान में पूरी ताकत से नहीं जूट सके। अपनी ताकर का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ प्रत्याशी के इर्द-गिर्द रहने में ही गुजार दिया।
- पूरा चुनाव विक्रांत सिंह के चेहरे पर ही लड़ा गया। उसके हिसाब से विक्रांत सिंह ने अपने बुते काफी वोट बटोर लिया।
- भाजपा कांग्रेस की गुटबाजी को लाभ उठाने विरोधी खेमे के नेताओं को साधने में लगी रही, जबकि अपनी पार्टी के बिखरे नेताओं को एकजुट करने में पीछे रह गई।
- शुरूआती दौर में माहौल ऐसा बना कि विक्रांत सिंह 20-25 हजार वोटों से जीतने का अनुमान लगाया गया लेकिन रणनीतिक चूक की वजह से वोटों का यह अंतराल कम होते चला गया। आखिरकार अति आत्मविश्वास और अहं के कारण जीती बाजी हार गई।
- भाजपा ने पूरी उर्जा और अधिकांश संसाधन साल्हेवारा बेल्ट में लगा दिया। उससे वहां आशातीत सफलता तो मिली लेकिन बाकी क्षेत्र में परिणाम उम्मीद के विपरीत चला गया।
- चुनाव के अंतिम दिनों में खैरागढ़ में विक्रांत सिंह की सभा ही नहीं हुई। स्थानीय स्तर पर लोग उनके विजन को सुनना चाहते थे। आम तौर पर देवव्रत सिंह खैरागढ़ के राजीव चौक में भावुक अपील कर बड़ी संख्या में वोट अपनी झोली में लाने में सफल हो जाते थे।