सीजी क्रांति/रायपुर। जीवन के करीब 50 साल भाजपा में खपाने के बाद नंदकुमार साय ने कांग्रेस प्रवेश कर लिया। लगातार उपेक्षा से नाराज चल रहे श्री साय को काफी दुखी मन से राजनीतिक जीवन का सबसे कठिन और दर्दनाक निर्णय लेते हुए कांगेस का दामन थामने विवश होना पड़ा। इसके लिए उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को जिम्मेदार ठहराया है। और राजनीतिक कुटिलता को इस्तेमाल करते हुए उन्होंने सीधे तौर पर पार्टी संगठन को जिम्मेदार ठहरा दिया।
आदिवासी समाज में गठरी पैठ रखने वाले बुद्धिजीवी और प्रतिभाशाली, बुद्धिजीवी का पार्टी छोडना, भाजपा के लिए दुखी करने वाला और चिंतनीय विषय है। नंदकुमार साय जैसा घुटन पार्टी में बूथ से लेकर प्रदेश तक कार्यकर्ताओं के मन में है। यही वजह है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। 90 सीटों में महज 15 सीटों में भाजपा सिमट गई। उसके बाद हुए उप चुनाव में यह सीट घटकर 15 से 13पहुंच गई।
बता दें कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने 15 साल छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री बने। आश्चर्य यह है कि डेढ़ दशक सत्ता में रहने के बाद भी प्रदेश में भाजपा का वोट शेयर कांग्रेस से 18-20 ही रहा! इससे यही साबित होता है कि भाजपा लगातार जीत तो दर्ज करती रही लेकिन जनता के बीच अपनी लोकप्रियता का ग्राफ नहीं बढ़ा सकी। यदि ऐसा होता तो भाजपा का वोट प्रतिशत साल दर साल बढ़ते रहा। लेकिन हुआ यह है कि 15 सालों में भाजपा के विधायक जीतकर बहुमत में तो आए लेकिन वोटों की संख्या में आशानुरूप बढ़ोत्तरी नहीं कर सकी।
15 साल बहुमत में रही भाजपा, पर वोट शेयर क्यों नहीं बढ़ा ?
डा. रमन सिंह लगातार सत्ता में आते रहे, इसकी एक बड़ी वजह कांग्रेस में बिखराव को भी माना जा सकता है। 15 साल की राजनीतिक वनवास झेलने के बाद होश में आए कांग्रेसी 2018 का चुनाव पूरी गंभीरता और एकजुटता से लड़े। परिणाम जब आया तो भाजपा की सत्ता रेत के महल की तरह ढह गई। स्वयं मुख्यमंत्री रहते हुए डॉ. रमन सिंह को दूसरे जिले की करूणा शुक्ला ने जबर्दस्त टक्क्र दी। और काफी कम अंतराल से रमन सिंह जीत पाए।
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह भले ही 3 बार मुख्यमंत्री रहे हो लेकिन उनका नेतृत्व पर सवाल उठते रहे। हैरानी की बात है कि रमन सिंह अपने निर्वाचन क्षेत्र यानी पूरे लोकसभा क्षेत्र में एक मात्र विधायक है। वे अपने ही निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव और अपने गृह नगर कवर्धा में भाजपा को जीता नहीं सके। बल्कि उनके गृह नगर में कांग्रेस के मोहम्मद अकबर पूरे प्रदेश में सर्वाधिक मतों से जीत दर्ज कर रमन सिंह के नेतृत्व पर सवाल उठा चुके हैं। राजधानी रायपुर में भी लगातार कांग्रेस के महापौर बैठते रहे। छात्रसंघ चुनाव में भी एनएययूआई का पलड़ा हमेशा भारी रहा।
रमन सिंह के कार्यकाल पर यदि गौर करें तो पूरे 15 साल भाजपा ने सत्ता में बने रहने के लिए केवल जीतने की रणनीति पर काम किया। पार्टी के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होती रही। यदि पार्टी की मजबूती पर काम किया होता तो भाजपा के वोट शेयर कांग्रेस से काफी अधिक होते। लेकिन आश्चयजनक बात यह है कि भाजपा से विधायक जीतकर बहुमत में तो आते रहे लेकिन कांग्रेस के वोट बैंक को तोड़ न सके। आखिरकार 2018 में स्थिति विस्फोटक हो गई।
15 साल में भाजपा ने सेकंड लाईन तैयार नहीं की
बता दें कि 15 साल सत्ता में रहने के बाद भाजपा ने कई वरिष्ठ नेताओं को जहां हाशिए पर रखा। वहीं पार्टी में सेकंड लाईन तैयार नहीं होने दिया गया। 2003 में सत्ता में आई भाजपा में दिलीप सिंह जुदेव, नंदकुमार साय, बृजमोहन अग्रवाल, सरोज पांडेय, मधुसूदन यादव, संजय श्रीवास्तव जैसे कई काबिल लोगों के पर कतरे गए। यही हाल भाजपा ने प्रदेश से लेकर बूथ स्तर पर किया। भाजपा ने लाखों वोटों के अंतराल से सांसद बने मधुसूदन यादव की टिकट काटकर डॉ. रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह को टिकट दे दिया। खैरागढ़ में विक्रांत सिंह को पॉवर तो दिया गया लेकिन उन्हें टिकट नहीं दी गई। कवर्धा में विजय शर्मा को काफी समय तक रोककर रखा गया। हालांकि उन्हें वर्तमान में प्रदेश महामंत्री बनाकर अच्छा संदेश देने की कोशिश की गई। दुर्ग में भाजपा ने युवा नेता ही तैयार नहीं किया। रायपुर में भाजपा संगठन में कई अहम पदों पर रहे संजय श्रीवास्तव को भी पार्षद पद तक ही समेटकर रख दिया गया। पूरे बस्तर संभाग में भाजपा ने युवा नेतृत्व तैयार करने की बजाय चंद लोगों को ही 15 साल तक रिपीट करते रहे।
केवल अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भाजपा के 15 साल में बूथ से लेकर प्रदेश स्तर तक कार्यकर्ताओं को हाशिए पर डालकर अपने लोग को सूत्रवाक्य बनाकर काम किया गया। जिसका परिणाम 2018 विधापनसभा चुनाव से आना शुरू हो गया है।
भाजपा को जीने वाले क्यों छोड़ रहे पार्टी, चिंतन का विषय ?
नंदकुमार साय ने अपने विचारों और सिद्धांतों को खूंटी में टांगकर कांग्रेस में शामिल हुए हैं। श्री साय का स्वाभाव, आचरण और कर्म कहीं से भी कांग्रेस के विचारों को स्वीकार नहीं करता लेकिन उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा। इसके लिए छत्तीसगढ़ में चल रही भाई-भतीजावाद, परिवारवाद और काबिल व करीबियत की गंदी राजनीति को माना जा रहा है! हालांकि छत्तीसगढ़ की राजनीति में ऐसे अप्रत्याशित घटनाक्रम चलते रहा है। रायपुर के तरूण चटर्जी, दुर्ग के पूर्व सांसद ताराचंद साहू, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सगी भतीजी करूणा शुक्ला जैसे दिग्गज नेता भी इससे पहले भाजपा में उपेक्षा से नाराज होकर पार्टी छोड़ चुके हैं।
दो बार सांसद और तीन बार विधायक रह चुके हैं नंदकुमार साय
नंदकुमार साय दो बार के पूर्व लोकसभा सांसद और तीन बार के विधायक रह चुके हैं। पूर्व में अविभाजित मध्यप्रदेश और बाद में छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में भी काम किया है। साय को सरगुजा संभाग (उत्तरी छत्तीसगढ़) के आदिवासी बहुल हिस्सों में एक प्रभावशाली नेता माना जाता है। उत्तरी छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखने वाले साय पहली बार 1977 में मध्यप्रदेश में तपकरा सीट (अब जशपुर जिले में) से जनता पार्टी के विधायक चुने गए थे।