झीरम घाटी हत्याकांड का सच….न्याय की आस में पीड़ित का छलका दर्द, कब सामने आएगा दुर्दांत नक्सली हत्याकांड का सच?

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सीजी क्रांति/न्यूज डेस्क। 25 मई 2013 वो कालादिवस था, जब कांग्रेस के काफिले में नक्सली हमला हुआ और छत्तीसगढ़ कांग्रेस के दिग्गजों को अपनी जान गवानी पड़ी तात्कालिक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल, वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या चरण शुक्ल एवं बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा सहित 32 लोगों को सहादत हासिल हुई थी तब शायद भारत की सबसे बड़ी नक्सली घटना थी।

देश को झकझोर कर रख देने वाली इस घटना के काफिले में शामिल डॉ शिव नारायण दिवेदी जो नक्सली हमले में घायल हुए थे। आज हमले की 9 वीं बरसी में उनका दर्द भी छलक उठा अपने नेताओ को यादकर गमगीन माहौल में अपनी फेसबुक वाल में अपनी पीड़ा व्यक्त कर डाली आइये जानते हैं। डॉ शिव नारायण दिवेदी ने अपनी फेसबुक में क्या लिखा उनके स्वलिखित लेख को हूबहू प्रकशित किया जा रहा है।

25 म‌ई 2013 के शाम 5 बजे का वह मंजर आज भी बार-बार रूह कंपाती है। जब बस्तर के झीरम घाटी में कांग्रेस के परिवर्तन यात्रा के काफिले पर नृशंस नक्सली हमला हुआ था। इस हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं सहित 32 लोगों की मौत हो गई थी तथा अनेक लोग बुरी तरह गोलियों से छलनी हुए थे। इस आलेख का लेखक खुद इस यात्रा में शामिल था और नक्सलियों के गोली से घायल हुआ था।

गौरतलब है कि इस हमले में कांग्रेस ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, उदय मुदलियार, दिनेश पटेल,योगेन्द्र शर्मा सहित अनेक नेता और सुरक्षा बलों की मौत हुई थी। इस हमले में नक्सलियों ने नृशंसता की सारी हदें लांघते हुए बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाने के बाद उनके शरीर को चाकुओं से गोद डाला है शव के उपर चढकर नाचते रहे। नंदकुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल पर गोलियां दागते हुए भी क्रूर माओवादियों का जरा भी दिल नहीं पसीजा।

नक्सलियों का विभत्स और निर्मम कृत्य उनके मनुष्य होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा था। शायद हिंसक जंगली पशु और पौराणिक कथाओं में पढ़ें राक्षस भी इतनी निर्ममता से मनुष्यता की हत्या नहीं करते रहे होंगे। मानवता को झकझोरने वाले इस माओवादी हिंसा ने तब देश की सियासत को बुरी तरह से झकझोर दिया और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया देखी गई।

इस दुर्दांत नक्सली हत्याकांड के बाद केंद्र और तत्कालीन प्रदेश सरकार ने ताबड़तोड़ जांच के आदेश दे दिया और देश को भरोसा दिलाया था कि इस हिंसा में शामिल नक्सलियों को पकड़ने तथा प्रशासनिक चूक के लिए दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई हेतु सरकार कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी। दुखदाई है कि घटना के 9 सालों बाद न तो इस हमले में शामिल पूरे नक्सली पकड़े गए,न सुरक्षा चूक में दोषी अधिकारियों पर कोई कार्रवाई हुई और न ही कथित राजनीतिक षड़यंत्र का पर्दाफाश हुआ।

झीरम कांड की नौवीं बरसी पर यदि इस घटना की जांच और दोषी पर कार्रवाई की बात करें तो यह पूरी तरह से सियासत और एक दूसरे पर दोषारोपण की भेंट चढ़ गया। साल 2013 में इस घटना के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाले यूपीए सरकार ने एन‌आईए जांच की घोषणा की और जांच की कार्रवाई शुरू भी हुई इसी दौरान केंद्रीय सत्ता का परिवर्तन हो गया और जांच अपनी गति से चलती रही आखिर में एजेंसी ने अपने छह साल की जांच के बाद 39 नक्सलियों के खिलाफ दो चार्जशीट पेश की और 9 नक्सलियों को गिरफ्तार किया।

एजेंसी ने इस हिंसा में राजनीतिक षड़यंत्र को नकारते हुए जांच समेट लिया लेकिन अनेक सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। इस जांच पर पीड़ित शुरू से ही उंगली उठाते रहे क्योंकि न तो एजेंसी में इस घटना में घायल हुए लोगों से कोई पूछताछ की और न ही घटनास्थल का बारीकी से मुआयना किया।तत्कालीन भाजपा सरकार के दौरान मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह ने झीरम हिंसा में घायल और पीड़ित लोगों जिसमें आलेख का लेखक शामिल था को कहा था कि वे हिंसा पर सीबीआई जांच की मांग के लिए उन्हें पत्र दें वे इस जांच के लिए आगे बढ़ेंगे।

पूर्व मुख्यमंत्री के इस भरोसे पर लेखक सहित 6 प्रभावितों ने इस कांड की सीबीआई जांच हेतु उन्हें पत्र सौंपा लेकिन कोई फैसला नहीं हुआ। विधानसभा में इस हिंसा के चर्चा के दौरान तत्कालीन भारसाधक गृह मंत्री अजय चंद्राकर ने सदन इस कांड की सीबीआई जांच की घोषणा भी की लेकिन यह घोषणा भी ढांक के तीन पात वाली कहावत साबित हुईये सब ही। साल 2019 में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के शपथ लेते ही उनके द्वारा झीरम कांड के दोषियों पर कार्रवाई तथा षड़यंत्र के पर्दाफाश करने के उनके घोषणा से इस कांड के पीड़ितों को न्याय की आस बंधी।

भूपेश बघेल की सरकार ने झीरम कांड की नये सिरे से जांच के लिए एस‌आईटी गठन की घोषणा कर दी लेकिन एन‌आईए इस जांच में पहले दिन से ही रोड़ा अटकाने लगी तथा घटना से संबंधित दस्तावेज राज्य सरकार को सौंपने के लिए एक सिरे से इंकार कर दिया। एन‌आईए ने इस घटना की जांच एसआईटी के मार्फत करवाने के फैसले के खिलाफ निचली अदालत में याचिका दायर की थी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। निचले अदालत के इस फैसले के खिलाफ एस‌आईटी ने हाईकोर्ट में अपील किया था जो ख़ारिज हो गया।

बहरहाल केंद्र और राज्य में सत्ता बदलने के बाद यह जांच सियासत में उलझते चली गई। गौरतलब है कि हमले के तीन दिन बाद ही तत्कालीन भाजपा सरकार ने जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अध्यक्षता में न्यायिक जांच आयोग बनाया था। आयोग को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी लेकिन समय बढ़ता गया ,इस बीच राज्य में सत्ता परिवर्तन होने के बाद आयोग को जांच का दायरा बढ़ाने का आवेदन दिया गया। अंतत्वोगत्वा आयोग ने घटना के आठ साल बाद अपनी रिपोर्ट राज्य के राज्यपाल को सौंपी। आयोग के अध्यक्ष जस्टिस प्रशांत मिश्रा द्वारा राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपने पर भी भारी सियासी बवाल हुआ।

इस रिपोर्ट के बाद राज्य सरकार ने झीरम कांड की न‌ए सिरे से जांच के लिए दो सदस्यीय न‌ए जांच आयोग के गठन की घोषणा की परंतु विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धर्मलाल कौशिक द्वारा याचिका पर हाईकोर्ट ने नये आयोग के कामकाज पर रोक लगा दी है। बहरहाल झीरम कांड पर गठित जांच आयोग और केंद्रीय एजेंसी वह राज्य पुलिस के जांच के बावजूद इस घटना की अंदर की कहानी आज भी अनसुलझी है।

घटना पर जांच दर जांच के बावजूद पीड़ितों को न्याय मिलने में देरी उन्हें लगातार बेचैन कर रही है लेकिन निष्ठुर सियासत इस बेचैनी से बेपरवाह है क्योंकि उसने न तो इस हिंसा में किसी अपने को खोया और न ही उनके रात की नींद में यह घटना कोई खलल डाल रही है। बहरहाल झीरम में शहीद हुए लोगों और घायलों को अब भी इंतजार है कि इस नृशंस हत्याकांड का सच आखिरकार कब सामने आएगा? आशंका यह भी कि सियासत और प्रशासनिक दांव-पेंच में यह घटना कहीं इतिहास न बन जाए।

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