सीजी क्रांति/खैरागढ़। पिछले एक दशक में खैरागढ़ की राजनीतिक तस्वीर बदलने लगी है। राजा देवव्रत सिंह के निधन और अब खैरागढ़—छुईखदान—गंडई जिला के अस्तित्व में आने के बाद राजनीतिक व्यवस्था में जबर्दस्त बदलाव देखने मिलेगा। राजनीति का विकेंद्रीकरण होगा। क्षेत्र की राजनीति अब तक पैलेस और राजपरिवार के इर्द—गिर्द ही रहा। वह बिखरने लगा है।
जिला बनने के साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था प्रभावी होगा। राजनीति में जातिवाद की चिंगारी और सुलगेगी। काबिल और करीबी के बीच जंग होगी। काबिलियत अपनी जगह पाने छटपटाएगा। जद्दोजहद करेगा। संघर्ष और तेज होगा।
बता दें कि देश की आजादी के बाद से खैरागढ़ की राजनीति में पैलेस और राजपरिवार का ही दबदबा रहा है। 2003 में विधानसभा के आम चुनाव में कांग्रेस के देवव्रत सिंह व भाजपा के सिद्धार्थ सिंह को चुनौती देते हुए कमलेश्वर लोधी ने निर्दलीय ताल ठोक दिया। वे हार तो गए पर वहीं से लोधी समाज में राजनीतिक चेतना का उदय हुआ।
2007 के उप चुनाव में भाजपा से कोमल जंघेल चुनाव जीते। तभी से खैरागढ़ की राजनीति में लोधी समाज का प्रभाव बढ़ता गया और राजपरिवार की राजनीति ढलान की ओर चली गई। हालांकि 2018 में लोधीवाद के तिलिस्म को तोड़ते हुए देवव्रत सिंह ने खुद को साबित कर दिया। लेकिन उनकी मौत के बाद राजपरिवार की राजनीतिक सांझ शुरू हो गई। हालांकि इन सबके बावजूद राजपरिवार की राजनीतिक जड़े अभी भी काफी मजबूत और प्रभावी है। पर पहले जैसी धार अब नहीं है।
अविभाजित मध्यप्रदेश में रानी रश्मि देवी सिंह और उनके बाद कांग्रेस में देवव्रत सिंह के विधायकी दौर में रोजगार और राजनीति में राजपरिवार अच्छा—खासा दखल रहा। सीधे तौर पर कहे तो उन्हें राजनीतिक और आर्थिक सुरक्षा मिलती रही। देवव्रत सिंह का प्रभाव कम होने के साथ ही राजपरिवार की यह सुरक्षा भी दूर होती चली गई। हालांकि इनके दौर में भी राजपरिवार में चंद परिवार ही रहे जो आर्थिक रूप से काफी मजबूत हुए। इन्होंने खेती और स्वरोजगार से पैसा बनाया। बड़ी संख्या में ऐसे परिवार भी है जो जद्दोजहद की जिंदगी ही जीते रहे। वे अब राजनीति में रुचि लेने की बजाय अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिशा में काम करने लगे हैं।
आज विभिन्न संचार साधनों और शिक्षा के विकास के चलते राजनीतिक जागरूकता में पहले से अधिक इजाफा हुआ है। फलस्वरूप क्षेत्र में लोधी समाज एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर चुका है। राजनीति में लोधी समाज को ध्यान में रखकर रणनीति बनाई जा रही है। विभिन्न प्रपंच कर जब लोधी समाज को कमतर जताने की कोशिश होती है तब पिछड़ा वर्ग का शिगूफा छोड़ दिया जाता है। जिसमें साहू, यादव, पटेल जैसी अन्य पिछड़ी जातियां भी शामिल हो जाती है। इसके बाद संख्या बाहुल्यता के कारण फिर लोधी समाज प्रभाशाली भूमिका में लौट जाता है।
जिला बनने के बाद अब सतनामी और आदिवासी समाज की भूमिका भी बढ़ेगी। यह समाज राजनीति में अपेक्षाकृत हाशिए पर रहा है। अपने अधिकारों से वंचित रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है इन समाज से भी अब नया नेतृत्व अंकुरित और पल्लवित होगा।
जातिवाद—क्षेत्रवाद के तिलिस्म को तोड़ने का माद्दा पूर्व विधायक देवव्रत सिंह के पास था, क्योंकि राजा होने की वजह से उन्हें जनता का नैतिक समर्थ था। वे शांत थे, सुलझे हुए थे। सुनते थे। समझते थे। शिक्षित थे। मीठा बोलते थे। व्यवहारिक पक्ष उनका तगड़ा था, ऐसे ही और भी खूबियां उनमें थी। उनके जाने के बाद, उनकी इस खूबियों को साधकर चलने वाला फिलहाल कोई नेता नजर नहीं आ रहा है। खैरागढ़ में राजपरिवार की घटती राजनीतिक साख का दुष्परिणाम यह होगा कि खैरागढ़ की राजनीति में बाहरी नेताओं का हस्तक्षेप बढ़ेगा। प्रशासन के सामने राजनीति गाहे—बगाहे बौनी होने लगेगी।